मेरा नाम रजनीश कांत है| मैं मुंबई में पत्रकार हूं| मुझे गाना लिखने और गाने का शौक है। साथ ही मैं कविता और कहानी भी लिखता हूं। तो, मुझे लगा कि मैं अपने शौक को आपके साथ साझा करूं। आपसे मुझे सहयोग की उम्मीद है।
Kahani Time: KauaaDol by ChandraKanta Dangi
ऑडियो कहानी टाइम- 'कउआडोल'- चंद्रकांता दांगी
मेरा नाम चंद्रकांता दांगी है। मैं गृहिणी हूं और लेखिका भी हूं। मुझे अपनी लिखी कहानी आपको सुनाना पसंद है। मैं अपने अनुभवों को, अपने संस्मरण को आपके साथ साझा करना चाहती हूं। मेरी किताब 'बयार' प्रकाशित हो चुकी है। आज मैं आपको अपनी लिखी कहानी 'कउआडोल' आपके साथ साझा कर रही हूं। मेरी कहानी सुनने के लिए इस चैनल को सब्सक्राइव कर लीजिए। कहानी को ज्यादा से ज्यादा शेयर कीजिए। तो, चलिये मेरी कहानी सुनिये-
ऑडियो कहानी टाइम- 'मिल गए मेरे भगवान'- चंद्रकांता दांगी
मेरा नाम चंद्रकांता दांगी है। मैं गृहिणी हूं और लेखिका भी हूं। मुझे अपनी लिखी कहानी आपको सुनाना पसंद है।
मैं अपने अनुभवों को, अपने संस्मरण को आपके साथ साझा करना चाहती हूं। मेरी किताब 'बयार' प्रकाशित हो चुकी है। आज मैं आपको अपनी लिखी कहानी 'मिल गए मेरे भगवान' आपके साथ साझा कर रही हूं। मेरी कहानी सुनने के लिए इस चैनल को सब्सक्राइव कर लीजिए। कहानी को ज्यादा से ज्यादा शेयर कीजिए। तो, चलिये मेरी कहानी सुनिये-
अमित जैसे पक्के दोस्त के अचानक बदले व्यवहार ने दिवाकर को हिलाकर रख दिया था। दिवाकर ने अमित से ऐसी कटुतापूर्ण भाषा की उम्मीद तो क्या, सपने में भी कल्पना नहीं की थी। अमित जैसे ही दिवाकर से मुंबई के जुहू बीच पर मिला, दिवाकर पर उसने आरोपों की झड़ियां लगा दी। पर दिवाकर खामोश रहकर उन आरोपों को सुनता रहा।
दिवाकर की तरफ से कोई प्रतिक्रिया न मिलता देख अमित भी चुप हो गया। कुछ देर तक दोनों के बीच किसी तरह की बातचीत नहीं हुई। माहौल बोझिल सा हो गया था। माहौल को बेहतर बनाने के लिए दिवाकर ने पहल की। दिवाकर ने अमित से कहा, यार, तुम्हारी समस्या क्या है ?
मुंबई की फिजा में जहर घुलने लगा था। कभी साथ-साथ खेलने, पढ़ने, मौज-मस्ती करने वाले मराठी और गैर-मराठी के बीच अब दरार पैदा होने लगी थी। कुछ स्वार्थी नेताओं की मुहिम रंग लाने लगी थी।
दिवाकर सिंह और अमित पटेल जैसे लंगोटिया यार की दोस्ती को भी नेताओं की मुहिम ने बदरंग कर दिया।
मुंबई के एक इलाके में दिवाकर सिंह और अमित पाटील साथ-साथ पले-बढ़े और अपने कैरियर की शुरुआत भी एक साथ ही की। दिवाकर सिंह आज भले ही मुंबईया कहलाते हों, लेकिन इनकी फैमिली कोई सौ साल पहले ही मुंबई में आकर बस गई थी। अमित पाटील तो खांटी मराठी ही हैं।
मराठी और गैर-मराठी मुद्दे की वजह से मुंबई और महाराष्ट्र के कई शहरों का माहौल बदल चुका है। मराठियों में गैर-मराठियों के खिलाफ यह कहकर घृणा पैदा कर रहे हैं कि गैर-मराठी उनके काम करने के अवसर को छीन रहे हैं। महाराष्ट्र के लोगों का हक मार रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि इस तरह का झगड़ा कोई आज शुरू हुआ है बल्कि तीस-चालीस सालों से रह रहकर ऐसी आग जलती रही है। दिवाकर और अमित भी कई बार इस तरह के तमाशों का गवाह बन चुके हैं लेकिन बचपना और जवानी की दहलीज पर कदम रखते वक्त तक उनमें आपस में कोई मनमुटाव नहीं हुआ था। वो इन तमाशों को भी आम झगड़ा की ही तरह देखते थे, लेकिन अब इनमें समझदारी बढ़ने लगी और कुछ नेताओं की मराठी और गैर-मराठी संबंधी बेलगाम टिप्पणियों ने उनमें भी खटास पैदा करना शुरू कर दिया।
दिवाकर भी कई बार मराठीविरोधी अभियान के शिकार हुए, हालांकि वो भी अच्छी मराठी बोल लेते हैं, पूरी तरह से मराठी संस्कृति में रचे-बसे हैं। दिवाकर ने अपने दर्द को अपने खासमखास दोस्त अमित के सामने बयान किया, लेकिन इस समय तक अमित में वो भावना जन्म ले चुकी थी जिसने कुछ मराठियों के मन में गैर-मराठी खासकर बिहार और उत्तर प्रदेश के बाशिंदों के खिलाफ जहर भर दिया था। अमित भी दिवाकर के दर्द पर मरहम नहीं
लगा सका। हालांकि अब तक दिवाकर भी इस बात को अच्छी तरह से जान चुका था कि इस मामले में अमित से उसे कोई राहत नहीं मिलने वाली है।
फिर भी उसने साहस करके अमित से एक सवाल जरूर पूछा…अच्छा अमित, ये बताओ…जब मुंबई में बिहार और दूसरे प्रांत के लोग आकर जीवन-बसर कर रहे हैं, नौकरियों कर रहे हैं तो फिर जो लोग मुंबई के रहने वाले है खांटी मराठी हैं, वो क्यों नहीं कर सकते….., क्यों कुछ नेता उनके लिए स्थानीय नौकरियों में 80 परसेंट तक आरक्षण की मांग करते रहते हैं। वो क्यों मराठियों में ये दुष्प्रचार करते रहते हैं कि बिहारियों के कारण उनके काम करने के अवसर खत्म होते जा रहे हैं…..
अमित कुछ पल चुप रहा….
लेकिन दिवाकर को इसका कोई जवाब नहीं मिला। पर, अब सवाल पूछने की बारी अमित की थी। अमित ने दिवाकर से पूछा… मैं तो तेरे सवाल का जवाब नहीं दे पाया, लेकिन मुझे तुमसे एक बात पूछनी है… दिवाकर ने कहा, पूछो..
अमित ने कहा, अच्छा दोस्त, ये बताओ, बिहारी के बारे में कहा जाता है कि वो काफी कड़ी मेहनत करने वाले होते हैं, प्रतिभाशाली होते हैं, बिहार में प्राकृतिक संसाधनों की भी कोई कमी नहीं है, फिर भी तुम लोग बिहार में काम क्यों नहीं करते, क्यों नहीं बिहार को एक ऐसा प्रदेश बना देते हो, ताकि बिहारी को बाहर जाने की नौबत न आए, दूसरे प्रांत के लोगों की गालियां और लाठियां नहीं खानी पड़े।
दिवाकर के पास भी अमित के इस सवाल का कोई जवाब नहीं था…… और शायद किसी नेता के पास भी दोनों के सवालों का जवाब मिलना मुश्किल है… क्योंकि उन्हें मुद्दा चाहिए, इलेक्शन के लिए, सत्ता पाने के लिए… आम नागरिक की भावना से उन्हें क्या-लेना…खुद बंदुकधारियों की छांव में दिन-रात रहने वाले इन नेताओं से उम्मीद भी कोई क्या कर सकता है…….
बहना ने भाई की कलाई से प्यार बांधा है, प्यार के दो तार से संसार बांधा है...बाजार में, एफएम रेडियो पर, टीवी चैनलों पर इस गाने की जबर्दस्त धूम है।
रक्षा बंधन के मौके पर ये गाना माहौल में मिश्री गोल रहा है। पूरा वातावरण ही भाई-बहना के प्यार में डूबा हुआ है। रक्षा बंधन का उत्साह जोरों पर है। रंग-बिरंगी राखियों से बाजार पटा है।
बहना अपने भैया के लिए एक से बढ़कर एक खूबसूरत राखियां खरीद रही हैं वहीं भैया की कलाई भी बहना का प्यार को पाने के लिए बेताब है।
भाई-बहना के इस प्यार के बीच एक राखी काफी उदास है। लोगों के जोशो और उत्साह के बीच वो राखी इस बात से उदास है कि उसकी इच्छा पूछने वाला कोई नहीं है। राखी इस बात को लेकर दुखी है कि बहना तो भैया की कलाई में मुझे बांधकर उससे रक्षा करने का वादा ले लेगी जबकि भाई भी राखी बंधवाकर एक बार फिर सदियों से चले आ रहे परंपरा का निर्वाह कर लेगा, लेकिन मेरा दुख कौन समझेगा।
राखी मन ही मन सोच रही है कि अगर मैं इंसान रहती तो मैं भी अनशन, हड़ताल करके अपनी मांग मनवा लेती लेकिन मेरा तो कोई वजूद ही नहीं है। राखी ये सब सोच ही रही थी कि उसके बगल में टंगी दूसरी राखी की नजर उस पर गई।
दूसरी राखी से उस राखी की उदासी देखी नहीं गई। दूसरी राखी ने पूछा, बहना आज तुम उदास क्यों हो। तुम्हें तो खुश होना चाहिए। तुम भी आज किसी के भाई की कलाई की शोभा बनेगी। इसपर पहली वाली राखी ने कहा कि तुम मेरी तकलीफ, मेरा दर्द नहीं समझोगी। दूसरी वाली राखी ने पूछा, बताओ न, क्या हुआ। अपना दर्द अपनों को नहीं बताओगी, तो फिर किसे बताओगी।
दूसरी राखी का इतना आश्वासन देना ता कि, पहली राखी का दर्द झट से बाहर आने लगा। सखी, सभी बहनें अपने भाइयों की कलाई पर मुझे बांधकर उनसे रक्षा का वादा लेती हैं, लेकिन आज बहनों पर इतना अत्याचार क्यूं।
बदायूं में जिन दो बहनों का गैंगरेप कर उसकी हत्या कर पेड़ से लटका दिया, वो भी तो किसी भैया की बहना ही थी और बहना ने अपने भैया को राखी बांधकर उनसे रक्षा का वादा लिया होगा। फिर जब उसपर जुल्म हो रहा था, तो भैया कहां था। और जिन लोगों ने इसको अंजाम दिया, उसकी कलाई में भी किसी बहना ने तो राखी बांधी होगी, क्या उसे जरा भी राखी का ख्याल नहीं आया। तो जब भैया के मन में राखी की इज्जत ही नहीं है, तो फिर मैं कैसे न उदास रहूं। फिर मेरे बंधने, ना बंधने का मतलब क्या है।
पहली राखी का दर्द बयान करना जारी रहा। उसने आगे कहा बाजार में, थाने में, स्कूल में, ट्रेन में, घर में, दिल्ली में, बिहार में, मुंबई में, बेंगलुरू में, मेरठ में, हापुड़ में, कोलकाता में, उत्तर में, दक्षिण में, पूर्व में, पश्चिम में, चाहे अपने हो या गैर आज हर तरफ बहनों की अस्मत लूटी जा रही है। लेकिन अपनी बहनों की रक्षा की कसम खाने वाले भैया कहीं दिखाई ही नहीं देते हैं। भैया, या तो बहना की अस्मत लुटते हैं या फिर अस्मत लुटते हुए देखते हैं। इस पर भी कुछ भैया बच जाएं, तो वो बहना की इज्जत लुटने की खबरों को चटकारे ले लेकर सुनते और सुनाते हैं। पहली राखी
ने दूसरी से कहा, जरा सोचो सखी, क्या बहना इसी दिन के लिए भैया की कलाई में मुझे बांधती है। भैया भले ही अपनी बहना पर अत्याचार को सह ले, देख के भी मुकदर्शक बना रहे, लेकिन मुझसे तो ये सब ना देखा जाएगा, ना ही सुना जाएगा।
सरेआम गैंगरेप और रेप कर बहनों की हत्या की जा रही है। 6 माह की मासूम हो, या फिर 70 साल की बुजुर्ग, भैया की हैवानियत से आज हर कोई डरी हुई है। हैवानियत ऐसी कि राक्षस भी सुनकर कांप जाए। जो भैया हैवानियत का खेल खेल रहे हैं, क्या उसकी बहना कभी पूछने की हिम्मत कर सकेगी, कि भैया काश, तुम मेरे प्यार की इज्जत रख लेते। क्या, ऐसी बहना अपने भैया का बहिष्कार करने की जुर्रत कर पाएगी।
पहली राखी ने कहा, अब तुम्हीं बताओ सखी, ऐसे में मुझे दुख तो होगा न। भैया से जिस रक्षा की उम्मीद में बहना राखी बांधती है, जब वही उम्मीद पूरी ना हो, तो फिर कलाईयों में मेरे बंधने का क्या मतलब है। दूसरी राखी ने भी
पहली राखी की हां में हां मिलायी और वो भी उदास हो गई। भला, कौन समझेगा, धागे के इस प्यार का, जबकि उनके लिए इंसानियत का ही कोई मोल ना हो।
मैं सुनसान हूं, मुझे गम नहीं। मैं उबड़-खाबड़ हूं, मुझे दिक्कत नहीं। मेरी हालत खराब है, मुझे कोई तकलीफ नहीं है। हमसे होकर काफी कम लोग गुजरते हैं, इससे भी मुझे कोई परेशानी नहीं है। मुंबई से सटे नालासोपारा के स्टेशन रोड से ये बातें उसके बगल वाली सड़क बता रही थी। सड़क ठीक हालत में नहीं थी और लोग भी इसका कम ही इस्तेमाल करते थे।
स्टेशन रोड उस सड़क की बातें काफी गौर से सुन रहा था और जब उसने अपनी बात खत्म की तो स्टेशन रोड अचानक किसी गम में डूब गया। स्टेशन रोड को ऐसा देखकर बगल वाली सड़क को अच्छा नहीं लगा। उसे लगा कि उसकी वजह से स्टेशन रोड को कोई चोट पहुंची है।
दोनों के बीच कुछ देर तक खामोशी रही। थोड़ी देर के बाद बगल वाली सड़क ने फिर से बातचीत की पहल की। उसने स्टेशन रोड से पूछा, क्या उसकी बातों से कोई तकलीफ पहुंची है। स्टेशन रोड ने ना में सर हिलाया। तो, फिर अचानक क्या हुआ।
स्टेशन रोड ने फिर अपने मन की बात बगल वाली सड़क से कहना शुरू किया। स्टेशन रोड ने कहा कि कुछ समय पहले तक मेरी हालत भी तुम्हारी जैसी ही थी। लोग तो हमारा काफी इस्तेमाल करते थे लेकिन नगर निगम की अनदेखी की वजह से मैं बदहाली से जूझ रहा था।
मेरे किनारे पर सीवर उफना रहे होते थे और मैं खुद उबड़-खाबड़ थी। नालियां खुली होने के कारण बरसात में मुझे जलभराव का भी सामना करना पड़ता था। बरसात में लोगों को आने-जाने में तकलीफ होती थी। कूड़ाघर न होने की वजह से मेरे ऊपर ही लोग कूड़ा फेंक दिया करते थे। इतना ही नहीं लाइट व्यवस्था न होने की वजह से शाम होते ही लोगों का निकलना मुश्किल होता था।
स्टेशन रोड ने आगे कहा कि कुछ समय के बाद हमारी हालत ठीक हुई। प्रशासन की नजर हमारी बदहाली पर गई। लोगों को भी हमारी हालत ठीक कराने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी। ऊपर से चुनाव सर पर था तो नेताजी को भी कुछ काम करके दिखाना था।
इन सबसे हमारी हालत ठीक हुई। हमारी मरम्मत की गई। मेरा पक्कीकरण किया गया। मुझे चौड़ा किया गया। सीवर व्यवस्था को ठीक किया गया। स्ट्रीट लाइट लगाए गए। साफ-सफाई का पक्का इंतजाम किया गया। सारे गड्ढे भर दिए गए। पर्यावरण और हरियाली का ध्यान रख कर मेरे किनारे पेड़-पौधे भी लगाए गए।
स्टेशन रोड ने अपने बगल वाली सड़क से कहा कि ये सब देखकर मैं काफी खुश हुआ। मैं खासा उत्साहित था कि अब तो लोग जब भी हमसे होकर गुजरेंगे तो उनको कोई तकलीफ नहीं होगी। लेकिन, मेरी ये खुश कुछ ही समय तक रही, क्योंकि कुछ समय के बाद गणपति का शहर में आगमन होने वाला था।
लोगों में बाप्पा के स्वागत को लेकर काफी जोश था। लोगों की इसी जोश ने हमारा बुरा हाल कर दिया। बाप्पा को प्रतिष्ठित करने के लिए मुझे जगह-जगह खोद डाला । मेरे बदन पर कई जख्म किये गए। हद तो तब हो गई जब बाप्पा के विसर्जन के बाद भी मेरी मरहम-पट्टी नहीं की गई।
ये सिलसिला गणेश चतुर्थी तक ही सीमित नहीं रहा। कोई भी त्योहार हो, किसी भी नेता का आगमन हो, होलिका दहन करना हो, हर बार हमारा कलेजा छलनी किया जाता है। सबसे दुख की बात तो ये है कि जो लोग मुझे छलनी करते हैं वही लोग सरकार, नेता, मंत्री, प्रशासन को गाली भी देते हैं कि वो सड़क ठीक क्यों नहीं करते।
स्टेशन रोड ने कहा मुझे जख्मी होने का ज्यादा दुख नहीं है बल्कि मैं ये देखकर ज्यादा दुखी हूं कि जिन लोगों को मेरे ऊपर चलना है, वो ही मुझे जगह-जगह खोद डालते हैं।
आखिर में स्टेशन रोड ने दर्द भरे लफ्जों में कहा भगवान इनको सद्बुद्धि देना।